बहुत खास है भगवान गणेश की प्रतिमा

बेतिया में राज देवड़ी से पूरब वाले प्राचीन द्वार से निकलते ही एक ओर भगवान गणेश और दूसरी ओर भगवान हनुमान के दर्शन होते हैं।हम आपको बताते हैं इन प्रतिमाओं का महत्व क्या है? इनका इतिहास क्या है?


आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व इन मंदिर को बेतिया के राजा ने स्थापित करवाया था।ये मूर्तियां यूं हीं स्थापित नहीं हुई थी,उनके पीछे एक लंबी कहानी है।
दरअसल बेतिया के महाराज भगवान के परम भक्त थे,लिहाजा धार्मिक कार्यों में उनकी रुचि सर्वाधिक रहती थी।उनकी धार्मिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजमहल से निकलने के मुख्य द्वार के दोनों ओर उन्होंने इन मंदिरों की स्थापना करवाई।  आज भले कूड़े की ढेर से वह ऐतिहासिक द्वार भर चुका है लेकिन कभी वहां द्वारपाल रहा करते थे और कभी उसी द्वार से होकर राजा की सवारी आया-जाया करती थी और निकलने के बाद राजा सबसे पहले श्री गणेश का दर्शन करते थे,फिर उनके सामने स्थित भगवान हनुमान का दर्शन करते थे. लेकिन यह मूर्तियां इतनी आसानी से राजा को नहीं मिली।दरअसल पुराने जमाने में मिर्जापुर से यह मूर्तियां नदी के रास्ते नेपाल जा रही थी।बेतिया के महाराज को पता लगा कि सुगौली में किसी कारण से इन मूर्तियों को रखा गया है,जहां से होकर वे नेपाल जाएंगी।ऐसा सुनते ही राजा के किसी मंत्री ने कहा कि आपके राज्य से होकर अगर मूर्ति चली जाए तो यह अच्छी बात नहीं है।इसके बाद राजा मूर्ति का दर्शन करने पहुंचे।लेकिन इन विशिष्ट मूर्तियों को देखकर सभी दर्शनार्थी आश्चर्य चकित रह गए। दरअसल मूंगा पत्थर की बनी ये दोनों मूर्तियां पत्थर के एक ही टुकड़े को काट-छांट कर बनाई गई थी।इतनी बारीकी से इनपर कार्य किया गया था कि देखने वालों की आंखे फटी रह गई। कलाकृति का ऐसा अद्भुत नमूना किसी ने आज तक नहीं देखा था। अब तो राजा को मंत्री की बात सच लगने लगी।उन्हें लगा कि यदि मेरे राज्य से होकर यह मूर्तियां नेपाल चली गई तो यह मेरा अपमान ही होगा। लिहाजा वे उन मूर्तियों की मुंह मांगी कीमत देने को तैयार हो गये। लेकिन मूर्ति वाले ने देने से साफ इंकार कर दिया।मामला आगे बढ़ा, कई लोगों ने इसमें पहल की,और राजा के क्रोथ का वास्ता दिया,तब जाकर मूर्ति के स्वामी ने इस शर्त पर मूर्ति दी की मूर्ति के वजन की चांदी के सिक्के वह लेगा।इसके बाद एक नाव पर मूर्ति और दूसरे नाव पर चांदी के सिक्के रखे गये।सिक्के चढ़ते गए और नाव पानी मेें डूबता गया।अंत में 15 लाख चांदी के सिक्के चढ़ गये और तब दोनों नाव बराबर हो गये।फिर मूर्तियां लेकर गाजे-बाजे के साथ इन मूर्तियों को बेतिया महाराज के यहां लाया गया।

मूर्ति से जुड़ा एक वाकया तब हुआ जब इन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा हो रही थी।दरअसल बनारस सहित अन्य कई शहरों से सैकड़ों पंडित इन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा में आये थे।जब मूर्ति को उपयुक्त स्थान पर रखने की बात हुई तो सबों ने मिलकर जोर लगाया लेकिन मूर्तियां टस से मस न हुई।इसके बाद किसी ज्ञानी ने बताया कि बिना राजा के हाथ लगाये ये मूर्ति नहीं हिल सकती।फिर राजा ने स्वयं मूर्ति को उठाने में सहयोग किया तब जाकर मूर्ति उठ गई और इसकी प्राण प्रतिष्ठा का कार्य संपन्न हुआ।
बता दें कि इन मंदिरों का महात्म्य बहुत बड़ा है।मंदिर के पुजारियों ने बताया कि इन मूर्तियों में साक्षात् भगवान का वास है।इसलिये जब कोई सच्चे मन से यहां आता है तो वह खाली हाथ नहीं जाता।

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